Friday, February 18, 2011

''............''  ही तो है !

खाली स्थान में कुछ भी लिख सकते हैं - बच्चा,  बूढ़ा,  औरत, शिक्षक,  खेतिहर,  देहाती. . . !

राज्य  या देश  से जुड़े विशेषण भी रख सकते हैं - बंगाली, बिहारी गुजराती, भारतीय, पाकिस्तानी, अफ़्रीकी. . . !   

समुदाय, जातिगत, पन्थ,  या धर्म के आधार पर भी सम्बोधन हो सकता है- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैनी . . . !

चाहे किसी के भी साथ जुड़े पर यह वाक्य प्रशंसा के लिए कम ही इस्तेमाल होता है. सच कहें तो यह वाक्य 'औकात' जताने के लिए प्रयोग होता है. हर किसी को एक सीमा में बांधता है. जैसे कि उस सीमा से बाहर जाना उसके लिए सम्भव नही है. या वह एक सीमा के आगे सोच/ कर  ही नही सकता. या उसे ऐसा ही रहना चाहिए.  

पर यही सम्बोधन जब दुसरे से जुड़ते हैं तब इनका मतलब और भी खतरनाक हो जाता है. जैसे कि  किसी युवा को कहा जाय कि  वह  'बच्चा' है या किसी 'पढ़े-लिखे' को कहा जाय कि वह 'देहाती' है. किसी को 'जंगली' कहने का मतलब तो हम सभी जानते ही हैं.  

ये बातें कभी-कभार होने वाली नही हैं. ऐसी बातें अक्सर ही  होती  रहती हैं. ऐसा भी नही है कि ऐसी बातें हम केवल सुनते हैं, ऐसी बातें हम करते भी हैं. खूब करते हैं, धडल्ले से करते हैं. और यह हमारे व्यवहार में इस तरह शामिल है कि हमे पता ही नही चलता जब तक कि कोई दूसरा न बताये.   

ऐसी बातें पढ़े-लिखे लोगों के बीच तो कुछ ज्यादा  ही होती हैं.  हद तो तब हो जाती है जब कई प्रकार नतीजे और निर्णय भी मात्र  इतने ही कारणों से ले लिए जाते हैं. और हमें कभी भी पता नही चलने  दिया जाता कि ऐसा क्यों हुआ ? और जब तक हम समझ पाते हैं तब तक हमारे लिए एक और प्रकार का कम्पार्टमेंट सोच लिया जाता है. 

दरअसल यह सारी कोशिश अलग-अलग स्तर पर  सत्ता  कायम रखने  की है. खुद को दूसरों से अलग और 'विशिष्ट' दिखाने की भी. 'देहाती' (जैसा कि लोग कहते हैं ) स्टाईल में कहें तो गुलाम बनाये रखने की साजिश भी है.  

पर जनाब !  इसके बदले में (प्रतिक्रिया स्वरूप) एक और वाक्य भी प्रयोग होता  है - 'ज्यादा पढ़ा-लिखा है.'

अब मुश्किल  यह है कि इस 'पढ़े-लिखे' की परिभाषा कौन करे - देहाती,  जंगली या  'पढ़ा-लिखा' ?     

      



   



Thursday, February 3, 2011

चन्द्र भूषण या 'चांटा' भूषण ?

बच्चों की दुनिया में शिक्षकों के कई-कई नाम होते हैं. ये नामकरण बच्चे बहुत ही सोच समझ कर करते हैं. मजे की बात है कि वे इस तरह के सम्बोधनों का सालों-साल तक इस्तेमाल करते रहते हैं और हमे पता भी नहीं चलने देते ? 

ऐसा भी नहीं है कि वे इस तरह के फैसले बहुत  जल्दबाजी में करते हैं. जी नहीं, इसके लिए बाकायदा उनकी बहस होती है. दो चार नामों पर विचार किया जाता है तब जाकर कहीं एक नाम फाईनल होता है. 

अब अपने  ''सी.बी". साहब को  ही ले लीजिये. स्कूल में आये तो बच्चों में बड़ा उत्साह था. उनके लिए स्कूल में पहली बार कोई म्यूजिक टीचर आया था. बच्चों को लगने लगा था कि अब वे भी सालाना टूर्नामेंट में संगीत की प्रतियोगिताओं में भाग  लेंगे और जीतेंगे भी. 

पर हफ्ता भी नहीं बीता कि बच्चों के बीच खुसुर-पुसुर शुरू हो गयी. यार कितनी जोर से कान खीचतें हैं. बिलकुल लाल कर देते हैं .  अब कल ही देखो  'मन्टू' को कितने जोर का चांटा मारा. उसके तो दोनों गाल लाल हो गये थे. कितने निर्दयी हैं यार, इनके अंदर बिलकुल भी दया नहीं है. क्या बच्चों के साथ ऐसा कोई करता है ? 

सच बात है यार !  वास्तव में वो "सी.बी." सर 'चंद्रभूषण' नहीं "चांटाभूषण"  सर हैं   !!
          
  

Wednesday, February 2, 2011

कितना जानते हैं बच्चों को आप ?


शिक्षण के समय अक्सर बच्चों के पूर्व ज्ञान को जानने, उनके पूर्व अनुभवों को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया  में शामिल करने की बात की जाती है. 
यह कैसे होता है आप जानते हैं. बच्चों से सम्बन्धित विषय के कुछ सवाल किये जाते हैं. और एक-दो उत्तर आ गया हम खुश की हमने बच्चों के पूर्व ज्ञान को जाँच लिया.
   
इसी तरह बच्चों के  लिए कोई सामग्री बनाते समय भी  'उनके' बारे में कुछ बातें तय की जाती हैं और उन्हीं बातों को आधार या कसौटी  मानकर बच्चों के लए कोई भी सामग्री या साहित्य रचे जाते हैं. 

बच्चों को जानने की हर कोशिश में हम कितना कामयाब होते हैं ? दुर्भाग्य से इसे जांचने के कोई सर्वमान्य और ठीक तरीके हमारे यहाँ प्रचलित नहीं हैं. या हैं भी तो अपर्याप्त. 

फिर ऐसे क्या तरीके हों जिनसे हम बच्चों को, बच्चों के बारे में ठीक से जान सकें और उनके लिए पूरे परिवेश (स्कूल, घर, समाज) को बालकेन्द्रित बना सकें ? 
कुछ स्कूल उनकी प्रोफाईलिंग के जरिये इसकी शुरुआत किये हैं. अच्छी बात है पर इसे और गहरा करना होगा.

बच्चों के बारे में जानने के लिए प्राय: कुछ सवाल किये जाते हैं- 
  • तुम्हे क्या पसंद है / अच्छा लगता है ? 
  • क्या नापसंद है / अच्छा नहीं लगता है ? 
इसी तरह उनके शौक, दोस्तों, परिवार..... आदि के बारे में कुछ सवालों के द्वारा हम उन्हें जान लेने का दावा करते हैं. 

पर उपर के दो सवालों को ही लें. इनके द्वारा हम क्या जानना चाहते हैं ? 
सवाल १ के जवाब में हम क्या सुनना चाहते हैं, किस चीज के बारे में उनकी पसंद जानना चाहते हैं  - खाना, पीना, रंग,  फूल,  फल,  फसल, स्कूल, घर, पेड़, खिलौना, खेल, जगह,  इमारत,  दोस्त,  किताब,  कहानी,  कविता, चित्र, धारावाहिक, खिलाडी ...... ?? 

हमारे आसपास बच्चों की दुनिया में इतनी सारी चीजें बिखरी पड़ी हैं, हम किन चीजों के बारे में उनकी पसंद या  नापसंद  जानना चाहते हैं ? 
अगर हमने जान भी लिया तो इसका रिकार्ड कैसे रखते हैं ? 

सच कहें तो हमारी ओर से बच्चों और उनके बारे में जानने की कोशिशें बहुत ही सीमित हैं,  इसीलिए हम बच्चों को हमेशा कमतर आंकते हैं.  
यदि हम बच्चों के सर्वांगीण  विकास की बात  कर रहे रहें हैं तो उनके 'सर्वांगीण' को जानना भी होगा.  पर यह इतना आसान नहीं हैं.

लेकिन इसके बिना कुछ करना भी आसान  नहीं है ?           

तो सोचना शुरू करें कि बच्चों को ठीक से जानने के लिए हमारे पास किस तरह के सवाल होने चाहिए ?


Tuesday, February 1, 2011

ठीक से रहो वरना..... ?
( किसके लिए, किसका और कितना ठीक )

ब्रह्मास्त्र कि तरह प्रयोग होने वाला यह वाक्य हममे से हर एक को कई बार सुनना पड़ता है :-

बच्चों को...
घर में कोई रिश्तेदार आये कि बच्चों कि शामत. बेटे ठीक से रहो. अंकल-आंटी  को नमस्ते करो, ठीक से व्यवहार करो, मेहमानों के सामने हमारी नाक मत कटाओ. पोयम सुनाओ..... ठीक से अंकल और आंटी की बक-बक सुनो.
स्टेशन, बाजार, दुकान  ... ऐसी जगहों पर तो बच्चों को बड़ों के द्वारा इस वाक्य के सिवाय  और कुछ सुनने को ही नहीं मिलता.  

और हमारे स्कूलों में तो यह आम बात  है. ठीक से उठो, ठीक से बैठो, ठीक से बोलो, ठीक से बात करो, ठीक से पढो, ठीक से लिखो,  ठीक से होमवर्क करो, ठीक से याद करो,  अपना सारा काम ठीक से करो ... ! 

शिक्षकों या ऐसे ही अन्य कर्मचारियों-अधिकारियों को ...
 जैसे ही किसी बड़े अधिकारी का मुआईना हो यह वाक्य अपने समय कर प्रचलित एसऍमएस की तरह व्यवहार में आ जाता है.  लगातार ठीक होने की सलाह और चेतावनी दोनों मिलनी शुरू हो जाती है. मुआईनें में सबकुछ ''ठीक'' रहा तो ठीक-ठाक वरना कुछ लोगों को 'ठीक' कर दिया जाता है. 
ऐसी  परिस्थितियों में कोई भी भला किस प्रकार के 'ठीक' होने की प्रेरणा पायेगा ?

ठीक होने की चाह और राह में और भी हैं...  
ठीक होने की यह सलाह और चेतावनी चुनावों के दौरान राजनैतिक लोग भी अपने समर्थकों, नीति-निर्धारकों, विपक्षियों को देते रहते हैं. 
 और ठीक   होने की कितनी प्रेरणा एक दूसरे से पाते हैं, आपको ठीक से दीख ही रहा होगा ? 

देशों के बीच भी यह जुमला चलता रहता है.  लोग एक दूसरे को ठीक करते रहने के सुझाव देते रहते हैं, कोशिश भी करते हैं. ठीक करने की यही कोशिश देशों के बीच युद्ध भी करा देती है. 

ठीक करना या होना चाहत भी है और चेतावनी भी !  पर इतने ठीक के बीच भला कौन नहीं कन्फ्यूज होगा ? जबकि ठीक करने वाला भी न जानता हो कि ठीक क्या है और ठीक होने वाला तो कभी जान ही नहीं पाता कि यह "ठीक" क्या बला है. 

आखिर क्या है "ठीक" ? जिसके पीछे हम सभी पड़े हैं. और जिसके लिए हम सभी को सुनना भी पड़ता है, कई बार झेलना भी ?
इससे भी बढकर है कि किसके लिए क्या और किस समय तक ठीक रहता है ? 

हम  सभी "ठीक" को अपना सकते हैं. बशर्ते कि हमे ठीक (चाहे गए स्वरूप ) का रूप दिखे पर यह तय कौन करेगा ? 

  • क्या बच्चे अपने लिए ठीक तय कर सकते हैं ?
  • और शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी अधिकारी  ? 
  • फिर क्रमश: समाज और देश ? 

हम हर एक को 'ठीक'  तय करने में और 'ठीक' होने में किस प्रकार मदद कर सकते हैं ? सबको "ठीक" करने कि बजाय यह सोचना ज्यादा  बेहतर होगा !!   


Saturday, January 29, 2011

चाँद फिर गायब !

गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की एक कहानी है "तालाब में चाँद''. कहानी का सारांश  इस प्रकार है - 

बंदरो ने तालाब में चाँद देखा और सोचा कि चलो पकड़ते हैं चाँद. सभी एक साथ पानी में कूदे. पर यह क्या ? वहां चाँद नहीं था. उन्होंने सोचा - डर के भाग गया होगा. चलो इस बार चुपके से पकड़ते हैं चाँद. वे पेड़ की डाली से एक-एक कर, एक दूसरे का हाथ पकड़ते हुए लटके. सबसे नीचे (पानी के करीब) का बन्दर चाँद को पकड़ने ही वाला था कि पेड़ की डाल टूटी और......! 

कहानी इतनी ही है.

४थी और ५वीं के बच्चों को ये कहानी सुनाने के बाद टीचर ने उन्हें पांच-पांच के ग्रुप में बांटा और कहा कि इस कहानी में आगे क्या हुआ, सोचो और लिखो ? 

एक ग्रुप ने जो कहानी सोची -

बंदरों ने ऐसा कई बार किया फिर भी वे चाँद नहीं पकड़ पाए. अब उन्हें ठंड भी लगने लगी थी और भूख भी सता रही  थी. वे वहाँ से चल दिए. कुछ दूर ही गये होंगे तभी एक बन्दर जोर से उछला और चिल्लाया देखो यहाँ है चाँद. हमारे डर से यहाँ आके छुपा है. सबने देखा वहाँ चाँद था. दरअसल रस्ते में एक दर्पण का टुकड़ा पड़ा था जिसमें चाँद झलक रहा था. सबने उसे करीब से देखना चाहा थोड़ी छीनाझपटी हुई और दर्पण का वह टुकड़ा कई टुकड़े में  बदल  गया.  पर सभी बन्दर खुश थे कि सबके पास उसका चाँद था.  

वे अपना अपना चाँद घर ले गये. उसे बहुत ही सम्भाल कर, छिपाकर रख दिया. सुबह चाँद से बातें करेंगे. पर यह क्या ? सुबह सबने देखा कि वहाँ चाँद नहीं था. वे जितना भी देखने क़ी कोशिश  कर रहे थे उन्हें अपने जैसा ही कोई बन्दर दिखाई  पड़ रहा था. 

बच्चो क़ी कहानी यहीं तक है. उपर दिया गया शीर्षक भी उन्ही का दिया हुआ है. 

है न मजेदार ??                     
  
बच्चे ऐसे ही हैं उन्हें बतायेंगे  नहीं तो वे क्या  सीखेंगे ? आखिर उन्हें सिखाना तो पड़ेगा ही ? हम ऐसा अक्सर सोचते रहते हैं. 

पर जब बच्चों से पूछा गया कि दर्पण के टुकड़े में चाँद दिख रहा था फिर उन्हें बन्दर कैसे दिखने लगा ? बच्चों का जवाब चौकाने वाला था. रात में चाँद चमकीला होता है सो वह दर्पण में दिख रहा था पर दिन में उजाला होने के कारण सबको अपना चेहरा दिख रहा था. बच्चो ने कहा कि उन्होंने ऐसा करके देखा है. ये बात सही है. 

मेरे लिए ये निर्णय करना कठिन हो रहा था कि मै इसे भाषा की कक्षा कहूँ या विज्ञान की.... ?      
     

Tuesday, January 25, 2011

कामचोर, बेईमान या कुछ और है कौआ ... ? 

बच्चो के साथ काम करते हुए हम जैसा सोचते हैं अक्सर उससे अलग ही होता है. कविता को ही लीजिये .....   

चुहिया लायी चावल चीनी मुर्गी लायी आटा,
हरी सब्जियां तोता लाया सबने मिलकर काटा,
...................................................................,
...................................................................,
पूरी बनी, बनी तरकारी सबने मिलकर खाया, 
कामचोर कौवे का मन भी देख-देख ललचाया !

कौवे को कामचोर क्यों कहा गया ? इस कविता में कहीं भी स्पष्ट  नहीं है. फिर भी कविता के बाद  बच्चों से ये बात करने की कोशिश की जा रही थी की कौवा कामचोर होता है. 

पर बच्चों कि राय अलग थी. कौवे को कोई काम होगा. वह उस दिन  मदद नहीं कर पाया होगा. सबकी पार्टी थी तो कौवे को भी कोई काम बताना चाहिए था. उससे भी मदद लेनी चाहिए थी. हो सकता है उसे सूचना ही न हो ?         

कौवे के बारे में वैसे भी हमारे समाज में ढेरों किम्वदंतिया मौजूद हैं. वह आलसी होता है. कामचोर होता है. अपने बच्चे को भी पाल-पोस  नहीं पाता. उन्हें भी कोयल के सहारे छोड़ देता है. 

कौवे जैसा काम तो आज हमारे समाज में भी हो रहा है पर हम उसके लिए कीमत अदा कर रहे हैं.  

फिर कौवे को ये लांछन क्यों ?      









कौन किसको और कितना सुधारे !

आजकल के बच्चे ऐसे ही हैं. बड़ो का कहना नही मानते. किसी का सम्मान नहीं करते. पढाई लिखाई में ध्यान नहीं देते. इधर-उधर घूमा करते हैं. दिनभर दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हैं. मोबाइल में दिनभर जाने क्या  करते रहते हैं. टीवी से दिनभर चिपके रहते हैं. जैसे इनको  किसी जिम्मेदारी का एहसास ही न हो. भगवान जाने इनका क्या होगा, ये अपने जीवन में क्या कर पाएंगे ? 

ऐसा कहा था दादाजी ने सालों पहले अपने पोते से. और आज येही बात पोता कह रहा रहा है अपने बच्चों से. 

दादाजी तो ऐसे ही हैं यार भेजा खाते रहते हैं. कोई काम-धंधा तो है नहीं बस हुकुम चलाना है उसमे क्या जाता है ? कहीं  आयें-जाएँ तब तो पता चले दुनिया में क्या हो रहा है ? कितने बोरिंग हैं यार दादाजी ? 

ऐसा ही कहा था सालों पहले बच्चों ने दादाजी के बारे में और आज भी कह रहे हैं अपने मम्मी-पापा के बारे में. 

तब  दादाजी ने सोचा था- केयर न किया गया तो बच्चे बिगड़  जायेंगे  और आज मम्मी पापा ऐसा ही सोचते हैं. 

ददजी हमे कुछ भी करने नहीं देंगे. ये हमे चिड़ियाघर  के जानवर की तरह  रखना चाहते हैं. ऐसा सोचा था तब बच्चों ने और आज भी ऐसा ही सोचते हैं. 

बड़ों की चिंता है कि बच्चे बिगड़ रहे हैं. ये कब सुधरेंगे ?

और बच्चों  की चिंता है कि बड़े उन्हें कुछ करने नहीं देंगे ? आखिर कब सुधरेंगे ये ?

तो बड़ा सवाल यह है की दूसरे की चिंताओं में लगे ये दोनों ही लोग अपनी चिंता कब करेंगे ?

ऐसा करने भी देना चाहिए क्या ?  तो यह होगा कैसे ?