चाँद फिर गायब !
गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की एक कहानी है "तालाब में चाँद''. कहानी का सारांश इस प्रकार है -
बंदरो ने तालाब में चाँद देखा और सोचा कि चलो पकड़ते हैं चाँद. सभी एक साथ पानी में कूदे. पर यह क्या ? वहां चाँद नहीं था. उन्होंने सोचा - डर के भाग गया होगा. चलो इस बार चुपके से पकड़ते हैं चाँद. वे पेड़ की डाली से एक-एक कर, एक दूसरे का हाथ पकड़ते हुए लटके. सबसे नीचे (पानी के करीब) का बन्दर चाँद को पकड़ने ही वाला था कि पेड़ की डाल टूटी और......!
कहानी इतनी ही है.
४थी और ५वीं के बच्चों को ये कहानी सुनाने के बाद टीचर ने उन्हें पांच-पांच के ग्रुप में बांटा और कहा कि इस कहानी में आगे क्या हुआ, सोचो और लिखो ?
एक ग्रुप ने जो कहानी सोची -
बंदरों ने ऐसा कई बार किया फिर भी वे चाँद नहीं पकड़ पाए. अब उन्हें ठंड भी लगने लगी थी और भूख भी सता रही थी. वे वहाँ से चल दिए. कुछ दूर ही गये होंगे तभी एक बन्दर जोर से उछला और चिल्लाया देखो यहाँ है चाँद. हमारे डर से यहाँ आके छुपा है. सबने देखा वहाँ चाँद था. दरअसल रस्ते में एक दर्पण का टुकड़ा पड़ा था जिसमें चाँद झलक रहा था. सबने उसे करीब से देखना चाहा थोड़ी छीनाझपटी हुई और दर्पण का वह टुकड़ा कई टुकड़े में बदल गया. पर सभी बन्दर खुश थे कि सबके पास उसका चाँद था.
वे अपना अपना चाँद घर ले गये. उसे बहुत ही सम्भाल कर, छिपाकर रख दिया. सुबह चाँद से बातें करेंगे. पर यह क्या ? सुबह सबने देखा कि वहाँ चाँद नहीं था. वे जितना भी देखने क़ी कोशिश कर रहे थे उन्हें अपने जैसा ही कोई बन्दर दिखाई पड़ रहा था.
बच्चो क़ी कहानी यहीं तक है. उपर दिया गया शीर्षक भी उन्ही का दिया हुआ है.
है न मजेदार ??
बच्चे ऐसे ही हैं उन्हें बतायेंगे नहीं तो वे क्या सीखेंगे ? आखिर उन्हें सिखाना तो पड़ेगा ही ? हम ऐसा अक्सर सोचते रहते हैं.
पर जब बच्चों से पूछा गया कि दर्पण के टुकड़े में चाँद दिख रहा था फिर उन्हें बन्दर कैसे दिखने लगा ? बच्चों का जवाब चौकाने वाला था. रात में चाँद चमकीला होता है सो वह दर्पण में दिख रहा था पर दिन में उजाला होने के कारण सबको अपना चेहरा दिख रहा था. बच्चो ने कहा कि उन्होंने ऐसा करके देखा है. ये बात सही है.
मेरे लिए ये निर्णय करना कठिन हो रहा था कि मै इसे भाषा की कक्षा कहूँ या विज्ञान की.... ?
गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की एक कहानी है "तालाब में चाँद''. कहानी का सारांश इस प्रकार है -
बंदरो ने तालाब में चाँद देखा और सोचा कि चलो पकड़ते हैं चाँद. सभी एक साथ पानी में कूदे. पर यह क्या ? वहां चाँद नहीं था. उन्होंने सोचा - डर के भाग गया होगा. चलो इस बार चुपके से पकड़ते हैं चाँद. वे पेड़ की डाली से एक-एक कर, एक दूसरे का हाथ पकड़ते हुए लटके. सबसे नीचे (पानी के करीब) का बन्दर चाँद को पकड़ने ही वाला था कि पेड़ की डाल टूटी और......!
कहानी इतनी ही है.
४थी और ५वीं के बच्चों को ये कहानी सुनाने के बाद टीचर ने उन्हें पांच-पांच के ग्रुप में बांटा और कहा कि इस कहानी में आगे क्या हुआ, सोचो और लिखो ?
एक ग्रुप ने जो कहानी सोची -
बंदरों ने ऐसा कई बार किया फिर भी वे चाँद नहीं पकड़ पाए. अब उन्हें ठंड भी लगने लगी थी और भूख भी सता रही थी. वे वहाँ से चल दिए. कुछ दूर ही गये होंगे तभी एक बन्दर जोर से उछला और चिल्लाया देखो यहाँ है चाँद. हमारे डर से यहाँ आके छुपा है. सबने देखा वहाँ चाँद था. दरअसल रस्ते में एक दर्पण का टुकड़ा पड़ा था जिसमें चाँद झलक रहा था. सबने उसे करीब से देखना चाहा थोड़ी छीनाझपटी हुई और दर्पण का वह टुकड़ा कई टुकड़े में बदल गया. पर सभी बन्दर खुश थे कि सबके पास उसका चाँद था.
वे अपना अपना चाँद घर ले गये. उसे बहुत ही सम्भाल कर, छिपाकर रख दिया. सुबह चाँद से बातें करेंगे. पर यह क्या ? सुबह सबने देखा कि वहाँ चाँद नहीं था. वे जितना भी देखने क़ी कोशिश कर रहे थे उन्हें अपने जैसा ही कोई बन्दर दिखाई पड़ रहा था.
बच्चो क़ी कहानी यहीं तक है. उपर दिया गया शीर्षक भी उन्ही का दिया हुआ है.
है न मजेदार ??
बच्चे ऐसे ही हैं उन्हें बतायेंगे नहीं तो वे क्या सीखेंगे ? आखिर उन्हें सिखाना तो पड़ेगा ही ? हम ऐसा अक्सर सोचते रहते हैं.
पर जब बच्चों से पूछा गया कि दर्पण के टुकड़े में चाँद दिख रहा था फिर उन्हें बन्दर कैसे दिखने लगा ? बच्चों का जवाब चौकाने वाला था. रात में चाँद चमकीला होता है सो वह दर्पण में दिख रहा था पर दिन में उजाला होने के कारण सबको अपना चेहरा दिख रहा था. बच्चो ने कहा कि उन्होंने ऐसा करके देखा है. ये बात सही है.
मेरे लिए ये निर्णय करना कठिन हो रहा था कि मै इसे भाषा की कक्षा कहूँ या विज्ञान की.... ?