अईसे बनी लाईब्रेरी - १
बडकू के हरदम फील होखत रहे कि लईकन के पढ़े के खातिर गाँव में लाईब्रेरी होखे के चाही. पर इ काम हो कईसे, पैसा कहाँ से आवे ?
बडकू ने इ बात छुटकी से कही. छुटकी से तो जैसे कोई बात पचे ही नहीं. वही दिन गाँव का, आसपास के दू-चार गाँव औरी जान गयल कि बडकू के गाँव में लाईब्रेरी खुले वाला हव ?
लईकन के इ बात बडन के भी नीक लागल. फिर का ? सब केहू लईकन के बात रखे खातिर आपन-आपन घर से पुरानी मैगजीन, कहनी-किस्सा के किताब... जेकरा पास जो भी रहेल सब एक जगह इकट्ठा करल गईल. गाँव के पंचाईत घर में एक कोने में रखल गईल. मुखियाजी एक आलमारी के जुगाड़ कर दिहेन. गाँव के ही शिक्षामित्र के इ जिम्मेदारी दे गईल कि उ सुबह शाम लाईब्रेरी खोलें. वा दिन बडकू अ छुटकी से ज्यादा खुश केहू नाही रहे जा दिन लाईब्रेरी के उदघाटन भईल. लईकन के बाप-महतारी भी खुश कि अब हमनी के बचवा लोग ठीक से पढ़ -लिख लीहें.
धीरे-धीरे लाईब्रेरी में गांवे के कुल लईकी- लईका इकट्ठा होवे लागेन. किताब काम पड़े लगल. जेतनी किताब रहा ओका भी दुई-दुई, चार-चार बार सब पढि गयेन. उहै-उहै किताब से अब सब बोर होवे लागेन.
बडकू और छुटकी के चिंता औरी बढ़ गईल. पर अबकी बड़ बुजुर्ग लोग साफ मना कर दिहेन कि ''हमनी जेतना कर सकत रहे कर दिहे, अब हमनी के पास अतना इनकम ना ह कि हमनी तोहर लोगन खातिर रोज-रोज किताब खरींदी. तोहर लोगन के भी कुछ सोचे के चाही.''
आप भी सोंची अ लिखीं कि बडकू के लाईब्रेरी कईसे समृद्ध होई ?
अगली बार पढ़ीं कि बडकू अ छुटकी मिलके वा लाईब्रेरी के कईसे रिच कईलें ?
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