Tuesday, January 18, 2011

सियार को नहीं बोलना चाहिए था ?

मोटा भादुकिया. गुजरात के  जामनगर  जिले में  काल्वाड़ी ब्लोक का एक स्कूल. पहली और दूसरी के बच्चे. 
बच्चो को सियार  और ऊंट की कहानी सुनाई गयी. फिर उस पर कुछ बातचीत हुई. 
"सियार की पीठ पर कौन बैठा ? कौन नदी में डूबा ? किसकी पिटाई हुई ? कौन चिल्लाया ?"
बच्चे एक सुर में जोर-जोर से जवाब दे रहे थे. 

सवालों का ट्रेंड बदला. अब कुछ इस  तरह के सवाल पूछे गए. 
"तुम्हे भूख लगी हो और तुम कुछ खा रहे हो, अचानक तुम्हे कोई पीटने लगे तो ? तुम्हारा  कोई साथी खा रहा है और यह जानते हुए भी की तुम्हारे  चिल्लाने से उसका नुकसान होगा क्या तुम चिल्लाओगे ?   

अब बच्चो के सुर एक नहीं थे. वहां कई जवाब थे अपने पूरे तर्कों  के साथ -
"दोस्त भूखा  था सियार को नहीं चिल्लाना था. भूखे तो नहीं मारना चाहिए था. कोई भला  अपने दोस्त को नदी में डुबोता है."    

बच्चों के जवाब ही अलग नहीं थे. उनके अलग गुट भी बन गए. सभी के अपने तर्क थे. एक राय होना मुश्किल था. 

"इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि ....."  कहने वालो के लिए बच्चो की ये बहस 'जोर का झटका जोरों' से है. 

और आपके लिए ???
   

2 comments:

  1. hamare liye bhi ku6 aisa hi he aajtak is tarah ki kahaniya sirf sunai hi or badme 'basanti, tera nam kya he' jese question hi pu6

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  2. bahut sahi kaha, Rajeshri! Ab hum sab ko mil kar baat aagey badhani hai. Kyon ne shikshak saathiyon ke saath nai tarah ki kahaniyon /kavitaon aur un par classroom mein ho sakne vaali baat-cheet par kaam kiya jaye?

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